जोधपुर. रियासत काल में परकोटे को अपनी आवाज के साथ जगाने वाला घंटाघर हाल के वर्षों में विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बन गया है। इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों के साथ-साथ विदेशी पर्यटकों की चहल-पहल ज्यादा दिखाई देती है।
घंटाघर की दुकानों में धीरे-धीरे अंग्रेजों की डिमांड वाले आयटम भी इफरात से रखे जाने लगे हैं। परंपरागत रूप से खरीदारी करने आने वाले स्थानीय लोगों के साथ गोरे भी दिखते हैं। जोधपुर के प्रमुख स्थलों में इसे भी शुमार कर लिया गया है। घंटाघर लोनली प्लेनेट में स्थान पा चुका है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि यहां के व्यापारी भी अंग्रेजों को ही ज्यादा तवज्जो देने लगे हैं। यह दर्द है 76 वर्षीय भवंरलाल भंडारी का। तेरह वर्ष की उम्र से पिता की पेढ़ी पर व्यवसाय शुरू करने वाले भंडारी साठ वर्ष पहले के घंटाघर की बात को छेड़ते हैं तो उनके जेहन में उस जमाने के चमकते घंटाघर की तस्वीर उभरती है।
उनका कहना था कि उस समय यहां हर वर्ग के परिवार की जरूरतें पूरी होती थी। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की, जो आज भी परंपरागत रूप से शादी-ब्याह या त्योहारी खरीद करने घंटाघर आते हैं। कपड़े का व्यवसाय करने वाले भवंरलाल बीती बातें याद कर कहते हैं, बींद-बींदणी के शादी का बेस 250 रुपए तक आ जाता था। बाकी लोगों के लिए कपड़े की गांठ खरीदते थे, जो 25 रुपए में आती थी। इसमें छोटी-बड़ी कम से कम दस ड्रैस होती थी।
अलग-अलग समय में अलग-अलग मंडियां लगती थीं। सवेरे चार बजे सब्जी मंडी लगती। उसके बाद सात बजे दुकानें खुल जाती थी। गांवों से आने वाले लघु व्यापारी यहां से रोजमर्रा की चीजें खरीदते थे। आज महंगी हो चुकी शिक्षा को लेकर व्यथित भंडारी बताते हैं कि कैसे उस जमाने में स्कूली फीस से लेकर ड्रैस तक पांच रुपए में पूरी हो जाती थी। मगर आज बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा पर हजारों रुपए खर्च होने लगे हैं।
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